Saturday 28 May 2011

ज़रा सोचो!!!

फूटपाथ पर चलते हुए
अचानक होता है सामना,
एक अनचाहे सूरत से,
फटा पुराना कम्बल,
मैले,चीथड़े कपडे,
जो की तन ढँकने में असमर्थ..|
मुह पर बढ़ी हुई दाढ़ी,
अधपके बिखरे बाल,क्रोडागत चक्षु..|
हाथ में छोटा सा कटोरा लिए,
गरीबी और नि:सहायता की सक्षात मूर्ति..|
फिर पड़ता है सुनाई,
तृषार्त कंठ से दुहाई की आवाज-
"ईश्वर के नाम से कुछ दे दे बाबा"
"खुदा के नाम से कुछ दे दे बाबा"...|
ठिठक जाता है पैर,
हाथ चला जता है जेब की ओर,
फिर चला आता है पूर्ववत रिक्त,
स्वयं चालित यंत्र  की तरह...|
अनायास मुँह से  पड़ता निकल-
"खुल्ले नही है"|
पर ऐसा क्यों ,किसलिए?
क्यों हृदय है भावशून्य  और मस्तिष्क  बुद्धिशुन्य ,
क्या हम नहीं जीते दूसरों के सहारे?
वही जो सबका स्वामी है,
आश्रयदाता और पालनकर्ता है,
उसने तो कभी हमको ना नहीं कहा?
रिक्त हस्त नहीं लौटाया..
कभी ये तो नहीं कहा कि खुल्ले नहीं है..!|
दूसरे के दिए पर ये अधिकार कैसा?
जो नहीं है हमारा ,
फिर उसे देने में संकोच कैसा??/

 

  
   

 

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