Tuesday 31 May 2011

तारीफ़-ए-हुस्न!!!

तू इतनी  हसीं है तू इतनी जबां है,
तुझे प्यार करने को जी चाहता है...|तुझे प्यार............
तुम्हारे ये होठों की रंगत गुलाबी,
तुम्हारी निगाहों की चुम्बन शराबी,
तुम्हारा ये चेहरा किताबी किताबी,
                                 इसे पढने को जी चाहता है......(१)
तुम्हारा ये मुखड़ा चाँद से है प्यारा,
कैसे बखानू लफ़्ज़ों में रूप ये न्यारा,
कम पड़ता है दुनियाँ की अलफ़ाज़ सारा,
                                  तुझे देख दिल बौरा गया है........(२)
हुस्न की मल्लिका तू जन्नत की परी,
इस धरती में तुझसा न कोई सुंदरी,
हर दिल की धड़कन तू ख्वाब सुनहरी,
                               तुझे पा लेने को जी चाहता है...........(३)
नींदे कोटि पद्म मुख ये तुम्हारी,
नयनों की कटाक्ष ज्यों मीठी कटारी,
किस्मत की धनि जिसका होगी तू गोरी,
                                 तुम्हे छुं लेने को जी चाहता है............(४)
बलखाके चले जब तू ए मधुवाला,
झरता है पलकों से रस मतवाला,
मधुकर दौड़े पिने को मद वो निराला,
                               दिल में बस गयी तू जब से देखा है...........(५)
काया मधुशाला मुख मधु की है प्याली,
जग गुलशन की तू अनमोल कलि,
देख तुझे हृदय में मची खलबली ,
                           ढूंढता था जिसे में तू ही वही है..............(६)     

   

हे! ईश्वर!!!

हे ! ईश्वर!
आखिर ये चलेगा कबतक?
जिसको तुमने बनाया है
तुम्हारा ही नाम लेकर 
तुम्हारा ही करता है खून,
मचा रखा है तांडव धर्म के नाम पर,
रौंद कर पैरों तले मानव को 
कुठारघात करता है मानवता पर..|
ये सब हो क्यों रहा है?
जिसका न रूप है,न आकार है,
न इतिहास है,न शिनाख्त है,
उसको लेकर आज कुछ लोग 
शिनाख्त पैदा करते हैं,
मजहब के नाम लेकर 
मानवता का नाश करते हैं,
सामाजिकता का खून कर
नफरत का बिज बोते हैं...|
काश! ये लोग समझ पाते
ये सब क्यों ?किसलिए?किसके लिए?
अरे! ये तो सोचो
मानव न रहा तो ,
खुदा को कौन पहचानेगा?
खुदा खुद अपने पहचान को तरसेगा ,
उसकी जिंदगी न रही तो,
खुदा का वजूद ही मिट जाएगा..|
मानव को करो प्यार तो
खुश बहुत होते हैं खुदा,
दोनों का स्वरुप एक हैं
रूप भले ही हो जुदा...|


 

 

Monday 30 May 2011

परिभाषा प्यार की!!!

प्रेम,प्यार,इश्क......
इस ढाई अक्षर क्या पढ़ लिया,लिख लिया,
समझने लगे कि,इसे पहचान गया...|
क्या कभी सोचा है तुमने?
ये है क्या चीज़?
क्या है परिभाषा?
क्या है स्वरुप?
रूप,गुण इसका....|
क्या समझोगे तुम?
तुमने तो तौला है इसको
भौतिक तुला पर,
कुछ देना तो बदले में पाना,
यही है सिद्धांत तुम्हारा....|
पर भूल गए हो तुम
समर्पण इसका है नाम,
जहां सर्वस्व लुटाने में लोग समझते हैं अपनी शान....|
अपनी सत्ता भूलकर 
हो जाते हैं एकाकार 
यही है शाश्वत प्यार...
युगों से है अमर
चाँद  सूरज कि तरह
न मिटा है न मिटेगा  कभी इसकी पहचान...|

पिया तोरे बिना...

पिया तोरे बिना,
लागे सूना सूना,
              ये सारा  ज़माना,
कैसे काटूँ तनहाई में,
ये लम्बी लम्बी रैना..|पिया तोरे बिना....(१)
तुम्हारे बिना   जानम
                                 कटती न रातें,
करवट बदलके 
                       लेता हूँ आहें
जबसे बना हूँ मैं
तुम्हारा  दीवाना...|पिया तोरे बिना.......(२)
 बहती है अखिओं से
                     अश्को के धारे
खड़े होके साहिल पे
                 प्यास बुझ न पाए
जाने क्या कहूँ मैं
आये न चैना...|पिया तोरे बिना....(३)
आ भी जाओ जाने-जाना
                         अब ना तडपाओ
शमा होके परवाने को
                 यूँ ना आजमाओ
जिउं भला क्यों में
अब मिट जाना....|पिया तोरे बिना....(४)   

              
                   
    

Sunday 29 May 2011

हे नवागत!!!

हे नवागत!
तुम्हारी आने की ख़ुशी में,
उत्सव मुखरित होती है ये धरा,
शंखनाद गूंजता है दिशाओं में,
नव-प्राण संचार होता है
तरु-लताओं के मुरझाये गात्र में...|
तुम्हारे मुस्कराने से
खिल उठते हैं वन-उपवन ,
चहक कर खग कम्पित करते हैं गगन,
कलकल रागिनी सुनाती है नदियाँ,
नृत्य करने लगते हैं समस्त प्राणियां ...|
तुम्हारे क्रंदन से
भूचाल आता है पृथ्वी में,
थम सा जाता है काल-चक्र की गति,
स्पंदन रुक जाता है संसार का...|
तुम्हारे निष्पाप चेहरे पर
हमने देखा है खुदा की परछाई,
तुम्हारे थिरकते क़दमों में
प्रगति लेती है अंगडाई..|
तुम में समाहित 
असीम सम्भावनाओं का भण्डार,
नव चेतना का हो तुम कर्णधार,
तुम्हारे चरणों में है न्योछावर 
जगत की समस्त धन-राशियाँ,
क्योंकि तुम हो
इस ब्रम्हांड की अमूल्य निधियां...|
 

तुम्हारी आने से....!!!

तुम्हारी आने से...
                       वीरान जिंदगी मेरी,
                      आवाद हो गयी है..|
तुम्हारी आने से..
                       बेरंग जिंदगी मेरी,
                        रंगों से भर गयी है...|
तुम्हारी आने से..
                         सुनी सी जिंदगी मेरी,
                         झंकृत हो उठी है...|
तुम्हारी आने से...
                         अँधेरी जिंदगी मेरी,
                          आलोकित  हो उठी है...|
तुम्हारी आने से...
                        मुरझाई जिंदगी मेरी,
                         पल्लवित हो उठी है...|
तुम्हारी आने से...
                       पतझड़ जिंदगी में मेरी,
                       वसंत बहार आ गयी है...|
तुम्हारी आने से...
                        निराश जिंदगी मेरी,
                        आशाओं से भर गयी है..|

Saturday 28 May 2011

ज़रा सोचो!!!

फूटपाथ पर चलते हुए
अचानक होता है सामना,
एक अनचाहे सूरत से,
फटा पुराना कम्बल,
मैले,चीथड़े कपडे,
जो की तन ढँकने में असमर्थ..|
मुह पर बढ़ी हुई दाढ़ी,
अधपके बिखरे बाल,क्रोडागत चक्षु..|
हाथ में छोटा सा कटोरा लिए,
गरीबी और नि:सहायता की सक्षात मूर्ति..|
फिर पड़ता है सुनाई,
तृषार्त कंठ से दुहाई की आवाज-
"ईश्वर के नाम से कुछ दे दे बाबा"
"खुदा के नाम से कुछ दे दे बाबा"...|
ठिठक जाता है पैर,
हाथ चला जता है जेब की ओर,
फिर चला आता है पूर्ववत रिक्त,
स्वयं चालित यंत्र  की तरह...|
अनायास मुँह से  पड़ता निकल-
"खुल्ले नही है"|
पर ऐसा क्यों ,किसलिए?
क्यों हृदय है भावशून्य  और मस्तिष्क  बुद्धिशुन्य ,
क्या हम नहीं जीते दूसरों के सहारे?
वही जो सबका स्वामी है,
आश्रयदाता और पालनकर्ता है,
उसने तो कभी हमको ना नहीं कहा?
रिक्त हस्त नहीं लौटाया..
कभी ये तो नहीं कहा कि खुल्ले नहीं है..!|
दूसरे के दिए पर ये अधिकार कैसा?
जो नहीं है हमारा ,
फिर उसे देने में संकोच कैसा??/

 

  
   

 

सौन्दर्य और गुण!!!

फूल जब खिलता है,
बहार आ जाता है गुलशन में,
उसकी सुगंध,सौन्दर्य भा जाता है हर किसी को,
हर भँवरे का दिल करता है कि,
उसको चूम ले,अपना बना ले..|
निहार के हर कोई लट्टू हो जाता  है उस पर,
 चाहता है तोड़ कर अपने पास रखने को...|
 लेकिन जब इस गुलाब,
मुरझा जाता है समय के प्रवाह से,
न कोई भ्रमर आता है उस पर मंडराने को,
न कोई आशिक चाहता है उसे पास रखने को...|
पर ऐसी क्या बात हो गयी उस गुलाब में,
जो कल हर किसी का चहेता था..
आज छोड़ दिया गया रद्दी कागज़ की भाँती
कचरे के डिब्बे में...|
हाँ, जरूर एक कमी आई है उसमे कि,
चली गयी है सौंदर्य उसकी,
नहीं है यौवन की कांति,
वो चमक जो पहले था उस पर...|
सौंदर्य नहीं तो क्या हुआ  ?
भरा पडा है उसमे कभी न ख़त्म होनेवाला
खजाना गुणों का..|
तो आज का मानव ,
क्या इतना गिर गया है निचे?
दिखाई नहीं पड रहा अछि चीजें उसे..|   
कोई नहीं पहचान रहा है गुण को,
बस,दौड़ रहे हैं सभी क्षणभंगुर सुन्दरता के पीछे..|
हे !मानव भाई संभल जाओ,
अब भी वक़्त है तुम्हारे पास,
अपना लो गुण को,
त्याग दो चमकीले सौन्दर्य की दमक को...|

हे !!!कलि

देख कर दुःख होता है मुझे
खिलती हुई उस नविन कलि को,
भविष्य से अनभिज्ञ ,
कैसी मुस्कुरा रही है!!!!!!
देख कर बिषाद की रेखाएँ
खिंच जाता है मन में...|
हाय!,,इस सुकुमारी कोमल तनया,
शुभ्रांगी,चारुवसना को क्या मालुम की,
इस मलय में,
वासना की  पंख फैलाए ,
दंडायमान है मदगंध भ्रमरराजी
मुख प्रसारित किये,
चूस कर मिटाने को  अपनी महाप्यास,
जो ना कभी तृप्त हैं,ना होंगे...|
मतलब हैं इनका-
बस तन से,न की मन से...|
स्यात ,संभल जाओ प्यारी कलि,
अभी नहीं है वक़्त खिलने का,
सिकोड़ लो अपना आँचल को ओट में,
छिपालो आनन  कोमल किसलय की  घोंसले में...|

!!
 

Friday 27 May 2011

जंग-ए-ईमान!!!

आया वह चहचहाते हुए
शायद इसलिए की 
मिलजाए पनाह,
बुझ जाए प्यास,
और मिट जाये क्षुधा...|
पर देख कर रह गया दंग
न था घड़े में पानी,
वर्तन में न था
एक भी अन्न का कण..|  
यही है इमानदारी की  हालत
जिससे लड़ रहा हूँ जंग...|

Thursday 26 May 2011

मेरी अभिव्यक्ति!!!

मेरी अभिव्यक्ति को,
बिना समझे,बिना सोचे,
मजाक उड़ाते हो तुम....|
देखकर हैरान  हो जाता हूँ मैं,
अपनी अज्ञानता को 
कैसे धड़ल्ले से प्रदर्शन करते हो तुम ...|
देखकर शर्मिन्दा  होता हूँ मैं,
कैसे अपने बेवकूफी का
वेहैयापन दिखाते हो तुम...|
देखकर दुःख होता है मुझे,
कैसे अपनी नासमझी का
खुद मजाक उड़ाते हो तुम....|

मुक्ति!!!

इस अनंत ब्रह्माण्ड में,
रेत के क्षुद्र कण है हम!
धर्म है अपना काल के प्रवाह में बहना...|
अपनी न स्थिति है न स्थायित्व,
हमारा न आकार है न आधार,
जहाँ आधार मिल गया
वहाँ रुक गए.......|
पर मंजिल नहीं है यह,
उस तक पहुँचने का 
एक साधन मात्र ,एक ठहराव है,
लाघव करने के लिए क्लेश का...|
स्यात जाना होगा,
अपने लक्ष्य पथ पर चलना होगा,
भुलाने होंगे ख़ुशी के वो पल,
विस्मृत करनी होगी वो दुःख भरी यादें,
तोड़ने होंगे माया के वो बंधन,
संजोकर रखना होगा स्मृति के वो अवशेष,
त्यागना होगा बिषय विकार को,
काटने होंगे रेशमी   रज्जू को,
बिछड़ना ही होगा....|
क्योंकि यही है परम सत्य,
इसे स्वीकार करना ही होगा,
निर्निमेष चलना होगा अपने ध्येय पथ पर...|
लक्ष्य है उस महा गर्भ में विलीन होना,
जहाँ संघटित होता है वह महामिलन,
जहाँ न बिछड़ने का डर
न उसकी प्रदत्त कोई वेदना,
तभी मिलेगी मुक्ति इस काल के चक्र से....|     






वो तुम हो क्या!!!!

वो तुम हो क्या???
जो पहले आकर चले गए थे आंधी की तरह,
हाथ में आकर निकल गए थे रेत की तरह.....|
देखता रह गया मैं हतप्रभ 
वेदना की कसक लिए,
फिर क्यों आये हो यहाँ?
देखने के लिए क्या हाल है मेरा,
खुशनसीब हूँ जो मुक्ति मिली तुम्हारे चंगुल से...|
जान गया था मैं,
तुम्हारा अस्तित्व क्या है,
क्या है धर्म,रूप,गुण,
ख़ाक होने से    बच गया...|
पहचान गया अपने स्व को,
बचा लिया अपने अस्मिता को,
बढ़ता गया निर्निमेष,
पैरों टेल कुचल कर तुम्हारी मया को...|
शायद इसलिए आज मैं मुक्त,
कोई प्रभाव नहीं तुम्हारा  मुझ पर,
नकाब हट चूका है अब
नहीं है वो इंद्रजाल का साम्राज्य,
जो मिटा तो सकता है तन की क्षुधा,
पर इससे तृप्त होगी नहीं आत्मा...|
अब नहीं है प्रयोजन तुमसे,
चले जाओ लेकर अपना जादुई स्पर्श,
क्योंकि मुझे मिल गया है वो महामंत्र
जिससे खुलेगा मोक्ष का पथ....|
  

Wednesday 25 May 2011

सिर्फ तुम!!!!

किसी झील की अधखिली
                        प्यारी  कमल हो तुम,
भौंरा हो जाये मतवाला देख
                 ऐसी मदमाती कलि हो तुम....|(१)
काली नागिन के जैसी
                  बिखरी लटें तुम्हारी,
हिरनी के जैसी
               मस्ती भरी आँखें तुम्हारी,
हुस्न की परी  हो
                  जहाँन की मल्लिका हो तुम...(२)
सूरज की लालिमा हो
                      चन्द्रमा की चांदनी हो तुम,
कवी का  ख्वाब
                  शायर की शायरी हो तुम....(३)
तुम्हारी मुस्कान पे 
                       खिली गुलाब सरमाये,
पलक झुके तो शाम हो
                       उठे तो सुबह हो जाये,
तुम्हारी क्या तारीफ़ करूँ
                    आशिक दिल की अरमान हो तुम....(४)
मेरे रग रग   में बसी हो 
                         मेरी धड़कन हो तुम,
तुम बिन मौत भली
                      मेरे जीने का सामान हो तुम.....( ५)
                  
   

Tuesday 24 May 2011

चिंता!!!

चिंताग्रस्त बैचेनी का आलम,
जिससे मन होता है परेशान,
फिर,मानसिक स्तर पर,
छटपटाहट की सुरुआत...|
मन का स्थिरत्व नष्ट 
दिग्भ्रमित घूमता है वो पाने को अपना हल..|
इससे प्रभावित कर्म,
च्युत होता है मार्ग से,
न होता है समन्वय मन का कर्म से,
भाव का बुद्धि से.....|
मानसिक यंत्रणायुक्त शारीर जीर्णता की और उन्मुख,
फिर क्या!सुरु होता है सर्वनाश का,
जहाँ से बंद होता है रास्ता आगे बढ़ने का,
और ले जाता है अकर्मण्यता की,
भयावह गर्त की ओर...!!!

विवशता!!!

प्रतीक्षा,,,
किसी इपषित वस्तु का,
जिसका न मिलने पर या,
मिलने में देरी होने पर,
मन में जात होता है बैचेनी...|
इससे उत्पन्न होता है खीज,छटपटाहट ,
धीरे,धीरे मन होता है ग्रसित
मानसिक शंकाओं से,
फिर जाग्रत होता है-
बुद्धितत्व और भावतत्व  में तनातनी ...|
विवश भाव दब जाता है तर्क के चपेट में,
यहीं से सुरु होता है-मनोविकार,
मन घिर जाता है कुंठाओं से,
जो की पैदा करते हैं इर्ष्या को...|
इर्ष्या से प्रबृत्त मन,
दूसरा रूप ग्रहण करता,
और फिर भाव पैदा होता है क्रोध का...|
फिर जन्म लेता है-अहंकार,
विनाश कारी प्रकृतियो का सूत्रधर,
घटाने को तत्पर होता भयावहता....|
पर जब मिल जाता है वह,,
जिसके  लिए है ये मानसिक उथलपुथल,
बोध होता है अपनी गलती का....|
क्या यही है ?मानव की प्रकृति,
या उसकी कमजोरी की विवशता.....|

 

 

Monday 23 May 2011

है मानव!!!

जीवन के इस शतरंज में,
कभी प्यादा तो कभी बादशाह,
कभी वजीर तो कभी घोटक,
जाने कब किसे, कहाँ,कैसे मात दे..दे...
कोई नहीं जानता....|
होड़ लगी है यहाँ 
आगे बढ़ने की,
अपनी ओहदा बचाने की,
अपने को ऊँचा दिखने की...|
चाहे इसके लिए
खून क्यों न करना पड़े मानवता का,
गला क्यों न घोंटना पड़े संस्कारों का,
चाहे कुचलना पड़े पैरों तले--
मर्यादा को,
या रौंद डाले संबंधों के नाजुक बंधन को....|
यहाँ कौन पहचानता है किस को?
सत्य के तेजव्सी प्रकाश में
उल्लू भला देख सकता है?
सभी तो खाल पहने है मानव की,
पर है असल में है  भेडिये,
मनुष्यता का चूसते हैं लहू..|
स्वांग रचते हैं साधू बनने का,
पर हकीकत में है पाखंड  |
सिद्धांत है इनका--
मुह में राम बगल में छुरी  |
स्वात, बचो इन दैत्यों से
पहचानों इनको,
करो बेनकाव,
तोड़ डालो इनके पारदर्शी महल,
मिटादो निशान इनके...
कलंक भरी रक्ताक्त इतिहास की..|
मुक्त करो इन नर खादकों के पंजों से
समाज,देश तथा मानव जाती को
अपनी शुभ्र ज्योति से..|
तब जा के सुरक्षित होगा समाज,
त्रास मुक्त होंगे ये मानव,
विष रहित होगी ये हवा,
फिर उसमे साँस ले सकेंगे,
भविष्य की नवजात अंकुर(आनेवाली पीढ़ी)
प्रवाह होगा मानवता का 
अमृत निर्झर सदा के लिए...|


सुख की परिभाषा!!!

जीवन!
तीन वर्णों की व्यापक परिधि में,
जरा दुःख से कवलित मानव,
वक़्त के थपेड़ों से मार खा खा कर,
ज़िंदा है,डटा हुआ है,
जीने की ललक अभी तक,चाह अबतक शेष.....
शायद इसलिए की,
जीवन का नाम संघर्ष ..
यूँ कहें तो---
जीवन एक संघर्ष...|
सुख है तो देखा हुआ,
पर कभी भोगा नहीं,
कहते हैं;चक्रवत कभी आये दुःख तो कभी सुख,
पर,मानने के लिए वाध्य नहीं हूँ मैं...|
मानु भी कैसे?
जिसका न स्थायित्व हो,
उसका अस्तित्व ही क्या?
इस व्यापकता में,
उसका क्षणभर का प्रभाव क्या?
कुछ नहीं,न के बराबर...|
जो साथ न दे वो साथी कैसा?
इसलिए अपना लिया है दुःख को,
समझकर पर्यायवाची सुख का..|
अब न कोई तकलीफ,
न कोई आह,
बस, अपने धुन में मस्त!
क्योंकि,मैंने जीना सीख लिया है,
दुःख में भी सुख पा लिया है,
अब कैसा दुःख,कैसा शोक,
ना कोई ग्लानी,ना कोई कष्ट..|
मर मर के जीना कोई जीना है,
जीवित रहके  भी ये तो,
मानो मरना है!
हाँ,इसी का नाम जीना है,
नहीं परवाह सुख की जहाँ,
हँस के जीना ध्येय है........|





Saturday 21 May 2011

अनदेखा भय;मृत्यु!!!

भय था जिसका पहले से
आज आ गया वह निर्मोही,
कहने लगा हो जाओ तैयार
करने पापों की प्रायश्चित सभी...........(१)
छोड़ता नहीं किसीको वो
है इतना कठोर निर्दयी,
बच्चा बूढ़ा कोई बच नहीं पाता
ले लेता है चपेट में सभी...................(२)
कराल की काली छाया है वो
नियति की कठोर सत्य,
बचना उससे मुश्किल है
जितने दुनियाँ में है प्राणिमात्र.......(३)
देख उसको याद आने लगी
अगली पिछली सारी बातें,
सोचने लगा सब कर्मो का फल
अब क्या होगा पछताते..............(४)
भोगने को शारीर तैयार न था
प्रदत्त उसकी वेदना,
ये तो सब करनी का फल
पड़ता एक दिन भोगना..............(५)
फिर भी दिल को मिलता सुकून
सामने देख उस विकराल काया,
क्योंकि मन जपता वो महामंत्र
छोड़ दुनियाँ की सब माया...........(६)
कभी न सोचा था उसका 
जिसका हम सबके ऊपर सत्ता,
आज छोड़ सब पार्थिव चीजें 
मन उससे मिलना चाहता..........(७)
यह है दुनियाँ की कठोर सत्य
इससे आज तक न कोई बचा,
जहाँ से निकले थे एक दिन 
उसमें सब कुछ मिल जाता..........(८)
 
    
     

Friday 20 May 2011

राजनीति!!!

लोकतंत्र में आजकल सबसे अच्छा है राजनीति,
सोचता हूँ बन जाऊं एक नेता,घर मेरे लगे खजानों की बाराती.........(१)
घपलावाजी,धोखेवाजी करदूँ  जीतने चाहे घोटाला,
जनता की आँखों में धुल झोंक के पहनूं नोटों की माला.................(२)
रिश्वतखोरी,भ्रष्टाचार,गुंडागर्दी की चारों ओर हो जाए सूत्रपात,
भय दिखाके क़ानून की नोटों से करूँ  बात...............................(३)
खुलने लगे जब पोल मेरी अलग बनालूं अपना गुट,
सरकार से बोलूं बचाओ मुझको,नहीं तो तू भी जाएगा टूट..............(४)
सत्ता मोह की लोभ में सरकार,सी.वी.आई. को दे आदेश,
जल्दी से जल्दी ख़ारिज करके,उठालो इस पर अपना केस.............(५)
देश जाए भाड़ में इससे मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता,
भरता रहे खजाना मेरा इससे सब कुछ होता...........................(६)
मौक़ा देखके पैसे के खातिर गिरवी रखदूँ  अपना देश,
घर-वार बेच के यहाँ का,भाग कर बस जाउंगा विदेश.................(७)
बनकर विदेशी नागरिक भला देश ऊबे या डूबे कौन देखता,
यही है देश की राजनीति आज,इस तरह के सारे नेता..............(८)  

 

Wednesday 18 May 2011

अनुभूति!!!

काल के प्रवाह को भला रोका जा सकता है?
शायद नहीं;क्योंकि जिस दिन रुक गया यह चक्र,
मिट जायेगी सर्जना की नित्य भव्य गोलोक सदा के लिए,
स्थिरत्व पैदा करता है  जडत्व ,जिसका न अस्तित्व है न महत्व,
इसलिए चलने दो यह 'रास', हरा-भरा रहेगा वृन्दावन,
तभी संभव होगा मिलन जीवात्मा का परमात्मा में......................................(१)
भूल जाएँ वो वेदना,जो मिला है वक़्त के थपेड़ों से,
न भोग पाने की वो अतृप्त इच्छा,न मिलने की आकांक्षा,
भुलादें सब दिल से,निर्मूल कर दें वो जड़ को,
जो पैदा किया है,निराशा की विष वृक्ष को,
पवित्र कर लें कलुषित आत्मा को,स्नान करके गंगा के पीयूष स्रोत में,
क्योंकि आ गया है वह ब्राह्म मुहूर्त,
अब नहीं समय निद्रित रहने का,हाँ निद्रित रहने का................................(२)
बढ़ चलो अब आ गया है वो वक़्त,
छट गए हैं बादल निराशा के,
फैल गयी है शुभ्र ज्योति चारों ओर,
भर लो नयी चेतना,सफलता चूमेगी कदम,
फूल खिलेंगे हर पग में,बहार आ जाएगी गुलशन में,
लिख डालो स्वर्णिम अक्षरों से,अपराजय का संगीत,
करदो खडा यश कीर्ति का ताजमहल,
फैला दो शुभ्र ज्योत्स्ना कोटि सूर्य की किरणों से,
सुनादो  नव निर्माण का महामंत्र ,जो शाश्वत है,अमर है.................................(३)

जीवन!!!

जीवन के कितने रंग है कौन यह बतला सकता है,
आदमी तो धरती पे अपना करम निभाने आता है.....(१)
यहाँ किसी को इत्तेफाक से कभी कुछ मिल जाता है,
उसके बदले खोना भी तो जरूर कुछ पड़ता है........(२)
यहाँ सभी अपना अपना नसीब लेकर आते हैं,
पता नहीं यह नसीब आदमी को क्या से क्या बना देता है..(३)
यहाँ मेहनत पर ही अपना तक़दीर बदल सकता है,
फिर ज़िन्दगी से भला कोई शिकायत क्यों करता है....(४)
खुदा ने तो हम सभी को इस जहान में भेजा है,
अपना अपना करम करके हमको महान  बनना है...(५)


Tuesday 17 May 2011

माँ!!!!

जिसकी आँखों में है प्यार अपार,
जिसकी बोली में है माधुर्य भण्डार,
जिसकी गोद में है जन्नत का आधार,
जिसकी चुम्बन में अमृत की धार,
वो है माँ,मेरी प्यारी माँ..........(१)
जिसके छूने से मिट जाए गम सारा,
जिसके प्यार का कायल जग सारा,
जिसके पल्लू में बंधा संसार ये सारा,
जिसके हृदय में करुना की धारा,
वो है माँ,मेरी प्यारी माँ..........(२)
जिसके बंदन में हो कष्टों का नाश,
जिसके चरणों में हो देवों का वास,
जिसकी सूरत देख मिट जाये प्यास,
जिसकी भोली मूरत जगाये विश्वास,
वो है माँ,मेरी प्यारी माँ..........(३)
जिसकी चरणों में करूँ नमन,
जिसकी सदा मैं करूँ बंदन,
जिसके लिए लूँ लाखों जनम,
जिसके लिए मेरा हर एक करम,
वो है माँ,मेरी प्यारी माँ........(४)





Monday 16 May 2011

नेता उपाख्यान!!!

एक दिन चिंताग्रस्त होके बैठे थे नरक के अधीश्वर,
नारायण नारायण जापते वहाँ प्रकट हुए नारद मुनिबर...(१)
क्या कारण है इतना चिंतामग्न हो हे! यमराज,
कृपा करके अपने चिंता का बतादो हमको राज...(२)
बोले नरक के अधिपति क्या बताऊँ हो गया हूँ परेशान,
पता नहीं अब तक क्यों नहीं आया है मरा हुआ एक जान...(३)
उस जान को गए थे लेने मर्त्य मंडल मेरे कुछ यमदूत,
पर नहीं लौट सके अब तक बताता है चित्रगुप्त...(४)
चिंता न करो बोले मुनिवर करता हूँ समाधान,
नारायण नारायण जपते मुनि शुरु किया मर्त्य अभियान...(५)
खोजते खोजते मर्त्य मंडल में नारद को मिल गया पता,
कुछ दिन पहले मरा हुआ था भारत का एक नेता...(६)
उसके बारे में खोजबीन शुरू करदिया नारद श्रीमान,
था वो बहुत भ्रष्टाचारी नेता बड़ा ही बेईमान...(७)
लालची बड़ा था घटिया थी उसकी ईमान,
लोगों का खून चूस  चूसके लिया था मासूमों का जान...(८)
पाप का गठरी भर भर के हो गया था भारी,
यमदूत क्या उठा पाएंगे उसको क्रेन(crane) भी बोलेगा सॉरी...(९)
पहुँच के पास नारद श्रीमान बोले चलो हे! नेता,
नरक में तुम्हारा स्वागत होगा मत करो तुम चिंता...(१०)
सुनकर बोले नेताजी नरक में भी क्या कर पाऊंगा नेतागिरी?
वहाँ भी क्या चला पाऊँगा अपनी पॉवर की दादागिरी?...(११)
नारद बोले चिंता न करो चलो मेरे साथ,
नरक में भी मनवा सकते हो तुम अपनी बात....(१२)
लेकर उसकी जान को नारद चल दिए नर्कपुर,
पहुँच कर नरक नेताजी का गर्व हो गया चूर...(१३)
यमराज ने दिया आदेश ले लो इस कमीने की जान,
तडपाओ इतना की इसे सत्य का हो जाए ज्ञान...(१४)
जैसी करनी वैसी भरनी जगत का है बिधान,
अब भी समय है सुधर जाओ हे! नेता सुजान...(१५)






Thursday 12 May 2011

ए दोस्त जरा सोचो!!!!

हर सफ़र का मंजिल नहीं होता,
हर समंदर का साहिल नहीं होता,
पर ए दोस्त तू क्यों भूल गया की हर रिश्ते का अंजाम नहीं होता...?
हर सपना हकीकत नहीं होता,
हर नजारा असलियत नहीं होता,
पर ए दोस्त तू क्यों भूल गया की हर पराया अपना नहीं होता...?
हर गुलसन एक सा नहीं होता,
हर मौसम एक सा नहीं होता,
पर ए दोस्त तू क्यों भूल गया की हर इंसान एक जैसा नहीं होता...?
यादें मिटाना आसन नहीं होता,
रिश्ता निभाना आसन नहीं होता,
पर ए दोस्त तू क्यों भूल गया की जिंदगी का सफ़र सुहाना नहीं होता...?

Wednesday 11 May 2011

द्रौपदी!!!

द्रौपदी!!!!
आज अगर तुम होती तो,
अपने लाज को बचा नहीं पाती......|
आज के जो युधिष्ठिर तुम को कोठे पे बिठा देते,
भीम तो खूद कीचक के पास ले जाता,
तुम्हारी इज्ज़त जुए मैं नहीं,बाज़ार मैं नीलाम होती....|
ये जो दू:सासन  है तुम्हे निर्वस्त्र कर देता,
ये हाथ से नहीं मशीन लगाकर तुम्हारे कपडे उतार देता...|
कदाचित कृष्ण भी तुम्हे बचा नहीं पाते,
क्योंकि हार जाने के डर से वो भी नहीं आते,
दुर्योधन अपने मनसूबे पर कामयाब हो जाता..|
अपनी विवसता मैं बस तुम लूट जाती,
खूद के नज़र मैं ही गिर जाती,
समाज के नर पिशाच जीत जाते,
तुम हमेशा के लिए बदनाम हो जाती..|




Tuesday 10 May 2011

बात नयी क्या है...

यहाँ तो ....
दिन बदल जाता है ,
महिना बदल जाता है ,
साल बदल जाता है,
इंसान बदल जाए तो बात नयी क्या है.......1
रात को तारे टूट जाते है,
सुबह को सपने टूट जाते हैं,
किसी का दिल टूट जाए तो बात नयी क्या है.......२
लोग दर्द भूल जाते हैं,
अपनों को खोने का गम भूल जाते हैं,
गुजारे हुए हर पल भूल जाए तो बात नयी क्या है....३
हर रंग बदल जाता है,
जीने का ढंग बदल जाता है,
किये वादे बदल जाए तो बात नयी क्या है....४
रास्ते छूट जाते हैं,
मंजिलें छूट जाता है,
किनारे छूट जाते हैं,
साथी छूट जाए तो बात नयी क्या है....५