Thursday 26 May 2011

मुक्ति!!!

इस अनंत ब्रह्माण्ड में,
रेत के क्षुद्र कण है हम!
धर्म है अपना काल के प्रवाह में बहना...|
अपनी न स्थिति है न स्थायित्व,
हमारा न आकार है न आधार,
जहाँ आधार मिल गया
वहाँ रुक गए.......|
पर मंजिल नहीं है यह,
उस तक पहुँचने का 
एक साधन मात्र ,एक ठहराव है,
लाघव करने के लिए क्लेश का...|
स्यात जाना होगा,
अपने लक्ष्य पथ पर चलना होगा,
भुलाने होंगे ख़ुशी के वो पल,
विस्मृत करनी होगी वो दुःख भरी यादें,
तोड़ने होंगे माया के वो बंधन,
संजोकर रखना होगा स्मृति के वो अवशेष,
त्यागना होगा बिषय विकार को,
काटने होंगे रेशमी   रज्जू को,
बिछड़ना ही होगा....|
क्योंकि यही है परम सत्य,
इसे स्वीकार करना ही होगा,
निर्निमेष चलना होगा अपने ध्येय पथ पर...|
लक्ष्य है उस महा गर्भ में विलीन होना,
जहाँ संघटित होता है वह महामिलन,
जहाँ न बिछड़ने का डर
न उसकी प्रदत्त कोई वेदना,
तभी मिलेगी मुक्ति इस काल के चक्र से....|     






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